अलविदा : नहीं रहे जीत सिंह नेगी , उत्तराखण्ड के लोक गीत संगीत के एक युग का अवसान

जितेन्द्र अन्थवालदेहरादून। उत्तराखंड की महान सांस्कृतिक विभूति वयोवृद्ध लोक गायक, संगीतकार, रंगकर्मी, कवि-गीतकार जीत सिंह नेगी जी अब हमारे बीच नहीं हैं। लोक संस्कृति के…

जितेन्द्र अन्थवाल
देहरादून। उत्तराखंड की महान सांस्कृतिक विभूति वयोवृद्ध लोक गायक, संगीतकार, रंगकर्मी, कवि-गीतकार जीत सिंह नेगी जी अब हमारे बीच नहीं हैं। लोक संस्कृति के इन प्रख्यात ध्वजवाहक का शतायु से महज 4 साल पहले अचानक यूं चला जाना समूचे उत्तराख्ंड की अपूर्णीय क्षति है।
दुर्भाग्य से राज्य बनने के डेढ़ दषक बाद भी उत्तरांखड के महान लोकगायक-लोक कला के सशक्त स्तंभ का नाम हमारी सरकारों ने पद्म भूषण या पद्मश्री के लिए संस्तुत करने लायक नहीं समझा और न ही उनके गीत को राज्यगीत के रूप में चयनित करते हुए उन्हें सम्मान देने की जरूरत समझी। 2 फरवरी 1925 को पौड़ी जिले के अयाल गांव में जन्में और वर्तमान में देहरादून के नेहरू कॉलोनी (धर्मपुर) के निवासी जीत सिंह नेगी उत्तराखंड के ऐसे पहले लोकगायक हैं, जिनके गीतों का ग्रामोफोन रिकाॅर्ड 1949 में यंग इंडिया ग्रामोफोन कंपनी ने जारी किया था। इसमें 6 गीत शामिल किए गए थे और पहली बार ऐसा हुआ था, जब किसी उत्तराखंडी लोकगायक के गीतों का देश की तब की नामी ग्रामोफोन कंपनी ने रिकाॅर्ड जारी किया। नेगीजी अपने दौर के न केवल जाने-माने लोकगायक रहे हैं, बल्कि उत्कृष्ट संगीतकार, निर्देशक और रंगकर्मी भी रहे। दो हिंदी फिल्मों में उन्होंने बतौर सहायक निर्देशक कार्य किया। ‘शाबासी मेरो मोती ढांगा…’ ‘रामी बौराणी…’ ‘मलेथा की गूल…’ जैसे कई नाटकों को भी उन्होंने लोकप्रिय किया। चीनी प्रतिनिधिमंडल ने कानपुर में उनके ‘शाबासी मेरो मोती ढांगा’ को न केवल रिकाॅर्ड किया, बल्कि रेडियो पीकिंग से उसका प्रसारण भी किया। वे पहले ऐसे गढ़वाली लोकगायक भी हैं, जिनके किसी गीत का आॅल इंडिया रेडियो से सबसे पहले प्रसारण हुआ। 1950 के दशक की शुरूआत में रेडियो से यह गीत प्रसारित हुआ तो उत्तराखंड से लेकर देश के महानगरों तक प्रवासी उत्तराखंडियों के बीच पलक झपकते ही बेहद लोकप्रिय भी हो गया। इस सुमधुर खुदेड़ गीत के बोल थे, ‘तू होली उंचि डांड्यूं मा बीरा-घसियारी का भेष मां-खुद मा तेरी सड़क्यांे-सड़क्यों रूणूं छौं परदेश मा…।’ (तू होगी बीरा उंचे पहाड़ों पर घसियारी के भेष में और मैं यहा परदेश की सड़कों पर तेरी याद में भटक रहा हूं-रो रहा हूं।)
जीत सिंह नेगी के निर्देशन में 1954-55 में दिल्ली में आयोजित गढ़वाली नाटक ‘भारी भूल’ के मंचन में मनोहर कांत धस्माना ने लीड रोल किया था। कई अच्छे कलाकार नेगीजी की टोली से जुड़े रहे। मुंबई-दिल्ली-चंडीगढ़ समेत देश के कई प्रमुख नगरों में उस दौर में नेगीजी के गीत और नाटक श्रोताओं-दर्शकों को अभिभूत किया करते थे। दून में भी 1980 के दशक में म्युनिस्पैलिटी (नगर निगम) मैदान में होने वाली ‘गढ़वाली रामलीला’ और उससे पहले 1960-70-80 के दशक में सेंट थाॅमस स्कूल के मंच पर होली की पूर्व संध्या पर आयोजित होने वाले फालतू लाइन होली समिति के सांस्कृतिक मंच पर जीत सिंह नेगी की प्रस्तुतियां आयोजन की गरिमा को चार चांद लगाती थीं।
कुछ साल पहले जीत सिंह नेगी के कुछेक पुराने गीत नरेंद्र सिंह नेगी जी ने अपनी आवाज में रिकाॅर्ड करके पेश किए। एक से बढ़कर एक बेहतरीन गीत और आवाज…सुनकर मन कहीं दूर पहाड़ों पर जा पहुंचता है। नरेंद्र सिंह नेगी ने जीत सिंहजी के जो गीत नए सिरे से स्वरबद्ध करके पेश किए, उनमें ‘घास काटिक प्यारी छैला रूमुक ह्वैगे घर ऐजा…’, लाल बुरांश को फूल सी सूरज ऐगे पहाड़ मा…, ‘चल रहे मन मथ जंयोला कैलाशू की छांव रे-बैठीं होली गौरा भवानी शिवजी का पांव रे…’ और ‘तू होली उंचि डांड्यूं मा बीरा घसियारी का भेष मा…, शामिल हैं’। बीच-बीच में गणीभाई की कंमेट्री और जीत सिंहजी की खुद की आवाज में कुछेक पंक्तियां भी इसे रोचक बनाते है।
एक घटना और याद आती है। घटना दशकभर पहले की है। दून में अभिनंदन समारोह तो बहुत से होते हैं, लेकिन जीत सिंह नेगीजी का अभिनंदन समारोह कई मायनों में अलग था। टाउनहाॅल में हुए इस समारोह में अभिनेता-निर्देशक-रंगकर्मी मुकेश धस्माना (सूर्यकांत धस्माना के भाई) ने नेगीजी के जीवन पर एक डाॅक्युमेंट्री भी तैयार की थी। गजब था, खचाखच भरे टाउनहाॅल का वह नजारा। कुछ साल पहले तत्कालीन कृषि मंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने भी डिफेंस काॅलोनी में उनके जन्मदिन के दिन उनका अभिनंदन समारोह आयोजित किया था, जिसमें नेगीजी के ढेरों प्रसंशक मौजूद थे। जीत सिंह नेगी जी उत्तराखंड की वह अनमोल सांस्कृतिक धरोहर थे, जिनके काम को सरकारी तौर पर भी सहेजा जाना चाहिए था। मगर, विडंबना यह कि सरकारों ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया। उत्तराखंड की इस महान सांस्कृतिक विभूति को नमन…

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