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आगरा में आसान नहीं है उत्तराखंड की पूर्व राज्यपाल बेबीरानी मौर्य की राह, पढ़िए पूरी खबर

आगरा। उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव में आगरा ग्रामीण सीट पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की उपाध्यक्ष एवं उत्तराखंड की पूर्व राज्यपाल बेबीरानी मौर्य के लिए इस बार मुकाबला कड़ा होता नजर आ रहा है। मौर्य इस सीट से भाजपा की प्रत्याशी हैं।

हालांकि पिछले चुनाव में भाजपा की हेमलता दिवाकर कुशवाह को इस सीट पर 65 हजार से अधिक मतों से जीत मिली थी। पिछले पांच साल में क्षेत्र की जनता से दूरी बना कर रखने के कुशवाह पर लगे आरोप, मौर्य के लिये इस बार मुकाबले को दिलचस्प बना रहे है। सूत्रों की मानें तो भाजपा के आंतरिक सर्वेक्षण में भी यही बात उभर कर आयी थी जिसकी वजह से पार्टी नेतृत्व ने कुशवाह की जगह मौर्य को मैदान में उतारा। News WhatsApp Group Join Click Now

आगरा ग्रामीण सीट पर बसपा से किरनप्रभा केसरी, कांग्रेस से उपेंद्र सिंह और सपा रालोद गठबंधन ने महेश जाटव को उम्मीदवार बनाया है। जबकि तीन बार के सांसद रहे प्रभुदयाल कठेरिया के पुत्र अरुण कठेरिया आम आदमी पार्टी के प्रत्याशी हैं। दलित बहुल इस सीट पर 23 प्रतिशत आबादी एससी वोटरों की है। जिसे बसपा का कोर वोट बैंक माना जाता है।

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इस क्षेत्र में बरौली अहीर, अकोला, बिचपुरी, धनौली अजीजपुर और नैनाना जाट छह ग्राम पंचायतें हैं। इनमें दलित (जाटव) और जाट दोनों समाज के अलग-अलग करीब 70 से 75 हजार वोट हैं। इसके अलावा बरौली अहीर और अजीजपुर आदि में यादव, लोधी, कुशवाह समेत कई पिछड़ी जातियों की आबादी है। इस बार रालोद-सपा गठबंधन के चलते जाट वोट बैंक में रालोद ने सेंधमारी की है। इसने भाजपा की हाईप्रोफाइल उम्मीदवार मौर्य की चुनौती को बढ़ा दिया है।

राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक मतदाताओं में एक सवाल यह भी है कि क्या सिर्फ प्रत्याशी बदलने मात्र से भाजपा की बात बन जायेगी। मौर्य का विधानसभा क्षेत्र से दूर छावनी क्षेत्र में निवास होना भी मतदाताओं के मन में सवाल पैदा कर रहा है कि चुनाव के बाद विधायक से उनकी दूरी बढ़ तो नहीं जायेगी।

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पिछले चुनाव में भाजपा को मोदी लहर और सपा सरकार में अराजक तत्वों को बढ़ावा देने के प्रति जनता के गुस्से का लाभ मिला था। मगर, इस बार परिस्थितियां अलग हैं। इसके मद्देनजर मौर्य को इस चुनाव में जनता का भरोसा जीतने के लिये कड़ी मेहनत करनी होगी। कोविड नियमों के दायरे में रहते हए चुनाव प्रचार करने की बाध्यता भी इस चुनौती को कठिन बना रही है।

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