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कहानी — हार गया रणविजय

….चुनाव जीतने पर बहादुर फिर दुबारा रामदीन के मुहल्ले में नहीं आया। यह जानने की भी कोशिश नहीं की कि जिसकी लाश की कीमत उसने वसूली है, उसके बाप की हालत कैसी है ? सरकार बनने के साथ बहादुर पहलवान उस पार्टी में शामिल हो गया जिसका विरोध करता रहता था। Read Full Story-

​— विभा मिश्रा, इलाहाबाद

रामदीन आज तीन दिन से जिन्दगी की ऐसे सच्चाई से दो-चार हुआ कि उसका मन विषाद से भर उठा। सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन खुद अपने बेटे की लाश के जुलूश में एक तमाशवीन की भूमिका निभानी पड़ेगी।

उसका दयनीय हुलिया, पपड़ाये होंठ, आंत से चिपके पेट, सिर पर रूखे बेजान बाल तन पर मैली धोती, मुड़ा-तुड़ा कुरता था। तीन दिन में रामदीन अपने उम्र का जैसे दस साल एक साथ जी लिया और अचानक बुढ़ापा आ गया। धंसी हुयी आँखों का पानी सूख गया था। अपने भविष्य का एक मात्र सहारा रणविजय उसके सामने सफेद चादर में लिपटा बेजान पड़ा था। उसके आस-पास सैकड़ों लड़के रह-रहकर नारे लगाते जा रहे थे ज्यादातर की आवाज मोटी हो गयी थी जो अब चीखने के नाम पर चिचिंया कर रह जाते। आवाज तो बाहर नहीं निकल पाती हां गले में दर्द से नसे जरूर उभर आयी थी।

रामदीन के बगल में इस क्षेत्र के जाने-माने नेता बहादुर पहलवान बैठे थे, जिनके चेहरे पर वक्त के साथ का उतार-चढ़ाव साफ झलकता था। इन तीन दिन में रामदीन उन सारे मान-मर्यादा को बनते-बिगड़ते देखा जिसकी कल्पना करने में ही कई जन्म लग जाते। बहादुर पहलवान के पास हर रोज पत्रकार से लेकर पुलिस व नेता का जमावड़ा लगा रहता। बहादुर पहलवान देश में एक मसीहा के रूप में उभरते जा रहे थे, जो भी आता सीधे बहादुर पहलवान के पास जाता फिर अपने काम पर लौट जाता। इस सारे भीड़ में कोई उपेक्षित था तो वह था रामदीन। जिसकी बजूद सिर्फ इसलिए कायम था कि वह रणविजय का बाप था वरना उसका रहने का कोई औचित्य नहीं था।

इधर बहादुर पहलवान दिन भर जहां तक होता प्रेस, टी.वी., पत्रकारों के सामने अपनी बातें अपनी तस्वीर छपवाने का प्रयास करते। रात होते ही वातानुकूल गाड़ी से घर चले जाते। टी.वी. पर दिखाये गये अपने भाषण, अखबार में छपे तस्वीर के बारे में चर्चा करते जो भी कमी रहती दूसरे दिन पूरी करने में में व्यस्त हो जाते। दिन भर नारे लगाने वाले लोग भी भाड़े पर लाये थे, जिनके अंदर किसी के गम या खुशी का कोई एहसास नहीं था। दिन भर धूप में खड़े गला फाड़ते रहते रात होते ही शराब-शवाब में डुबकी लगाते। सबको पता था दुनिया दिन में ही देखती है या यो कहिए कही नजर के सामने जो दिखे वही देखती है। बाकी देखने का न तो वक्त रहता है ना ही कोई देखना चाहता है। अगर देखता भी है तो वही जो मीडिया दिखा देती है।

यह देखकर रामदीन खून के आंसू रोता, सोचता क्या यही वह समाज है जिसके हक के खातिर रणविजय आज मौत को गले लगा लिया। क्या उसकी जिन्दगी किसी अच्छे मकसद को पूरा करने की शुरूआत होगी। जिन्दा रहने पर क्या वह भी यही करता ? जो इसके साथ हो रहा है। इन सवालों के बंवडर में फंसकर कब अतीत के समदंर में गोते लगाने लगा पता ही नहीं चला।

रामदीन के यहाँ जब रणविजय पैदा हुआ था तभी उसकी माँ का देहांत हो गया। बूढ़ी काकी के देखभाल में रणविजय पला-बढ़ा था उसके रंग रूप तथा शरीर को देखकर रामदीन उसका नाम रणविजय रखा था। रामदीन गरीब कोल जाति का था जहाँ इस प्रकार के नाम रखने पर पाबंदी थी। ऐसा नाम जंमीदारों, ठाकुरों के यहाँ की बपौती हुआ करती है। अपने घर पर काम करने वाला एक मामूली नौकर के बेटे का नाम उच्च वर्गों की तरह रखने पर काफी विरोध हुआ।

रामदीन को यह नहीं पता था कि मेरे बेटे रणविजय का नाम ही गलत है। आज उसे पता चला कि नाम भी जाति की तरह उपर से ही बनकर आते हैं। वह तो यह नाम इसलिए रखा था कि मेरा बेटा भूखमरी के युद्ध पर एक दिन जरूर विजय पायेगा। इसी कारण उसका नाम रणविजय रखा था। इसी सपने को संजोये नाम न बदलने का फैसला कर गाँव छोड़ हर चला आया।

शहर एक ऐसा तिलिस्म की तरह होता है कि यहां आने पर लोग न तो बंध पाते हैं और ना ही भाग पाते हैं। बस जुड़ने और टूटने के बीच फंसकर रह जाते हैं। ऐसे ही शहर में रामदीन भी रणविजय को लेकर एक नया सपना साकार करने आ गया था। जहाँ पर रणविजय की सही परवरिश कर सके। दिन-रात मजदूरी करके रामदीन ने रणविजय को पढ़ाना शुरू किया जिससे अच्छी नौकरी कर सके। अपनी तरह रणविजय को एक कुली मेहतर नहीं बनाना चाहता था। वह अपनी जिन्दगी की परेशानी, गरीबी, अपने बेटे को धरोहर में नहीं सौपना चाहता था। उसे लगता था देश एक परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है, जहाँ दलितों की पूछ-परख बढ़ गयी है। हर पार्टी उनके लिए कुछ करने को आतुर है। रणविजय की पढ़ाई को देखकर रामदीन हमेशा उस दिन का इंतजार करता जिस दिन रणविजय इस दुनिया से अलग अपनी दुनिया बसायेगा।

उसका सपना उस दिन टूटता नजर आया जिस दिन रणविजय बस्ती के गुण्डे से भिड़ गया। नया जोश, नया तेवर, जवानी का खून था जहाँ, मरने-मारने की भाषा पहले की जाती है। समझाईस का मौका क्षीण हो जाता है। यहीं से उसके अंदर गुटबाजी, नेतागिरी का सृजन हुआ। अब वह हर समय पढ़ने के बजाय छुट-पुट जुलूसों में बढ़-चढ़ कर भाग लेने लगा। रामदीन ने उसे बहुत समझाया इन सब झंझटों से दूर रहने के लिए। वह जानता था दुनिया बड़ी स्वार्थी है यहाँ वक्त के साथ कारवां बनता-बिगड़ता है। रणविजय एक न सुनता वह हमेशा कहता ‘‘बापू अब हमारा राज है। देश पर भी मेरा हक है। वह दिन गये जब दलित जूंठन पर जीते थे। अपने अधिकारों को पाना हर दलित का धर्म है इसके लिए मैं कुछ भी कर सकता हूँ।’’

उसके अंदर झलक रही दृढ़ विश्वास से रामदीन चुप हो जाता। वह जानता था जिस रफ्तार से रणविजय आगे जा रहा है, बीच में रोक पाना असम्भव था। उसके बढ़ते कदम देख कांप जाता था। धीरे-धीरे रणविजय मुहल्ले से आगे शहरों में जाने लगा जब उसकी दोस्ती एक नामी स्थानीय नेता बहादुर पहलवान के साथ हुयी तो रणविजय को जैसे पर लग गये।

वह हमेशा व्यस्त रहने लगा चारों तरफ भाग-दौड़ करने में जुुटा रहता। पहलवान से पहचान के कारण उसकी पहचान हर महकमे में हो गयी थी। इसी कारण सभी उससे किसी न किसी काम को करवाते रहतेे। हर गरीब, दलित के लिए एक आशा की किरण बनकर उभरा था। अखबार में भी खबरें बनती, जिसे देखकर रामदीन को कहीं न कहीं उसकी बात सच होती लगती। रामदीन कहता नौकरी न सही नाम तो है न! जाने कितने बेसहारों के लिए लड़ रहा है। क्या यह कम है। इधर
विधान सभा का चुनाव शुरू होने वाला था। बहादुर पहलवान भी खड़ा हो रहा था। रणविजय खाना-पीना छोड़ दिन-रात पार्टी के प्रचार में व्यस्त रहता। कहीं भाषण कहीं रैली घर-घर घूमकर लोगों को अपनी पार्टी को जिताने का वादा लेता। बहादुर पहलवान उसके काम से इतना खुश थे कि उसे अपना दाहिना हाथ कहते। पहलवान जब पहली बार रणविजय के साथ उसके घर आये थे तब रामदीन के पैर छुते कहा था-‘‘बाबू जी आपका बेटा हीरा है हीरा। देखना एक दिन ये बहुत बड़ा नेता बनेगा दलित जाति का नाम रोशन करेगा।’’ रामदीन की खुशी से आँखें छलछला उठी। इतने बड़े नेता की बात क्या कभी झूठ हो सकती है भला। सचमुच मेरा रणविजय हीरा है। उसके पढ़ने और नौकरी न कर पाने की नाराजगी कपूर की तरह उड़ गई थी। अब वह सीना तान कर कह सकता था कि रणविजय नाम रखना सफल हो गया। पेट के युद्ध में न सही पहचान के युद्ध में तो विजय प्राप्त कर रहा है।

जिस दिन मतदान होना था उस दिन रणविजय अपनी पार्टी के कार्यकर्ता के रूप में बूथ में खड़ा था। पता नहीं किधर से सैकड़ों नव युवक फर्जी वोट डालने आ गये। इसी बात को लेकर आपस में झगड़ा होने लगा। बात इतनी बढ़ गयी कि गोली चलने लगी। रणविजय को बीच-बचाव के दौरान गोली लग गयी वह वहीं गिर पड़ा। चारों तरफ भगदड़ मच गयी। जब तक उसे अस्पताल ले जाते वह इस दुनिया से जा चुका था। रामदीन के सामने तो अंधेरा छा गया। बूढ़े कंधों पर अपने ही भार ढोने की सामर्थ्य नहीं, बेटे की लाश ले जाने का पत्थर कलेजा और कंधा कहां से ले आता ?

उधर बहादुर पहलवान रणविजय की लाश चौराहे पर रख पुनर्मत की मांग करने वालों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही करने की मांग में आमरण अनशन पर बैठ गये। रामदीन विवश था इस राजनीति के फंदे से चाहकर भी अलग नहीं हो सकता था। रणविजय जीते जी तो लड़कर न्याय दूसरों को दिलाता था, आज अपनी लाश को रख खुद के न्याय के लिए फरियाद करना पड़ रहा था। इतने में एक जीप आकर रूकी। जिसे देख जय-जयकार के नारे गूंज उठे।

रामदीन अतीत से वर्तमान में लौट आया। बहादुर पहलवान को फूलों से लाद दिया गया था। कभी रणविजय अमर रहे, नेताजी जिन्दाबाद के नारे लगते। बहादुर पहलवान ने पत्रकारों से कहा-‘‘यह हमारी नहीं एक दलित की जीत है। जिसने अपनी पार्टी के लिए, अपने हक के लिए जान तक दे दी। ऐसे लोग बहुत कम होते हैं। उसने जो मार्ग दिखाया है, मैं आजीवन निःस्वार्थ भाव से अपने को समर्पित करता हूं। भगवान उसकी आत्मा को शांति दे। रणविजय के जाने से देश ने एक युवा नेता खो दिया। मेरा तो दाहिना हाथ ही कट गया….बस और नहीं।’’

रणविजय की लाश उठाने की तैयारी होने लगी। चार लोग कंधे पर उठाकर चल दिये। रामदीन मरी हुई चाल में अपने को घसीटते हुये चलने लगा। दाह संस्कार हो जाने पर बहादुर पहलवान माथे का पसीना पोछ गाड़ी में बैठ गये और अपने पास बैठे आदमी से कहा ‘‘इसके बाप को कुछ रूपया दे दो क्रिया कर्म करने के लिए’’ गहरी सां छोड़ते हुये आगे कहा-‘‘चलो आज बला टली। तीन दिन हो गये नाटक करते-करते। ढंग से न खा पा रहे थे ना ही सो पाये।’’
पास बैठा व्यक्ति हंसकर बोल ‘‘लेकिन पहलवान जी इसी के कारण जनता की सहानुभूति का वोट आपको मिला। वह तो मर गया पर आपको ताज पहना गया….बेचारा ! ’’ ‘‘हाँ भाई वह लड़का था बड़े काम का।’’ इतना कह पलवान उस व्यक्ति के साथ ठहाका लगाकर हँस पडे़।

रामदीन उन लोगों की तरफ पीठ कर जलती चिता की ओर मुंह करके उठती लपटों को एकटक ताकता रहा। जैसे वह रणविजय को उन लोगों की ओट में रखना चाहता हो। चुनाव जीतने पर बहादुर फिर दुबारा रामदीन के मुहल्ले में नहीं आया। यह जानने की भी कोशिश नहीं की कि जिसकी लाश की कीमत उसने वसूली है, उसके बाप की हालत कैसी है? सरकार बनने के साथ बहादुर पहलवान उस पार्टी में शामिल हो गया जिसका विरोध करता रहता था। कुर्सी के लिए विरोधी पार्टी से गले मिलने पर रामदीन ने सिर्फ इतना कहा था-‘‘रणविजय तेरा नाम ही मैंने गलत रखा था, जिससे न तो तू पेट से लड़ पाया न कोई निश्चित सामाजिक पहचान ही मिली। तू सिर्फ अपने नाम को बचाने का युद्ध लड़ा। जिसमें हार..हार गया रणविजय’’

— कत्यूरी मानसरोवर, नववर्षोंक 2005, पृष्ठ संख्या 47 से साभार


Deepak Manral
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