यह भी जानिये : अल्मोड़ा में सिर्फ कटारमल में ही नहीं, यहां भी है ऐतिहासिक सूर्य मंदिर

कीजिए दर्शन गुणादित्य के ऐतिहासिक सूर्य मंदिर के प्राय: जब ऐतिहासिक सूर्य मंदिरों पर चर्चा होती है तो सबसे पहले कोणार्क के सूर्य मंदिर और…


  • कीजिए दर्शन गुणादित्य के ऐतिहासिक सूर्य मंदिर के
अल्मोड़ा की भनोली तहसील का गुणादित्य कस्बा/फोटा — गिरीश पालीवाल

प्राय: जब ऐतिहासिक सूर्य मंदिरों पर चर्चा होती है तो सबसे पहले कोणार्क के सूर्य मंदिर और दूसरे नंबर पर उत्तराखंड के अल्मोड़ा में स्थित सुप्रसिद्ध कटारमल सूर्य मंदिर का नाम जिवहा पर आता है, किंतु कम ही लोगों को पता होगा कि अल्मोड़ा में सिर्फ कटारमल ही नहीं बल्कि, भनोली तहसील के गुणादित्य कस्बे में भी एक कत्यूर कालीन सूर्य मंंदिर अवस्थित है।

उल्लेखनीय है कि नगाधिराज हिमालय का आंगन उत्तरांचल, कोटि-कोटि देवताओं के अधिवास से दीप्तिमान है। महर्षियों व मनीषियों के चरण रज से पावन यह क्षेत्र प्राचीनकाल से ही हमारे लिए वन्दनीय व स्मरणीय रहा है। यहां के पवित्र तीर्थ एवं दिव्य देवालय, सहस्त्रों वर्षों से हमारे अन्तस में आध्यात्म की अनुभूति जगाते रहे हैं। पुराणों में इस पुण्यभूमि की महिमा का बहुविध मण्डन हुआ है। यहाँ कत्यूरी तथा चन्द राजाओं द्वारा निर्मित मंदिर भी धार्मिक आस्था का धवल ध्वज फहराये हुए हैं।

कुमाऊँ में शिव तथा शक्ति के मन्दिर ही अधिक हैं। विष्णु तथा सूर्य के मन्दिरों की संख्या बहुत कम है। कूर्माचल के केसरी पं. बद्रीदत्त पाण्डे ने ‘कुमाऊँ का इतिहास’ में बेलाड़, रमक, कटारमल, नैनी, जागेश्वर तथा भौमादित्य में सूर्य मन्दिरों का उल्लेख किया है। इन मंदिरों के अतिरिक्त भी गड़ (डीडीहाट), सुई (लोहाघाट), मोस्टवकौड़ा (चंपावत) रौलमेल (बाराकोट), कनरा (लमगड़ा) तथा गुणादित्य (धौलादेवी) में सूर्य मन्दिर देखे गये हैं। इसके साथ ही सूर्य की कई प्रतिमायें शैव-वैष्णव मन्दिरों तथा अनेक स्थानों पर खुले देवस्थलों में रखी हुई दृष्टिपथ होती हैं। उक्त सूर्य मन्दिरों में से अधिकांश की प्रतिमायें या तो चोरी चली गई हैं अथवा खण्डित व नष्ट हो गई हैं।

फोटा — गिरीश पालीवाल

कटारमल से कुछ अलग है गुणादित्य का सूर्य मंदिर

यद्यपि गुणादित्य के सूर्य मन्दिर का ढांचा कटारमल की भांति भव्य नहीं है। सुई और रमक की तरह यहां कोई मेला भी नहीं लगता, तथापि यह मन्दिर मनोवांछित आकांक्षा की अभिपूर्ति हेतु ‘श्रद्धा का केन्द्र’ है। विशेष बात यह है कि जहां अन्य सूर्य मन्दिरों के द्वार पूर्व की ओर हैं, वहां गुणादित्य के इस मन्दिर के द्वार पश्चिम दिशा की ओर है।

11वीं से 12वीं शताब्दी के मध्य का बताया जाता है मंदिर

गुणादित्य मन्दिर की सूर्य प्रतिमा कब और किसने बनायी, इसके संरक्षण हेतु मन्दिर निर्माण किस काल में हुआ, इसके संदर्भ में आधिकारिक रूप से कुछ भी कह पाना कठिन है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस मन्दिर की प्रतिमा या तो कत्यूरी काल में बनी अथवा चंदवंशीय राजाओं के शासनकाल में इन्हें कत्यूरी कला की अनुकृति पर बनाया गया। गुणादित्य के पुजारियों को भी इसकी कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं है। शिल्पकला की दृष्टि से यह मूर्ति 11वीं या 12वीं शताब्दी मध्य की लगती है।

मूर्ति के संदर्भ में प्रचललित है किवदंति

किवदन्ति है कि यह मूर्ति एक ‘रढ़ेल’ पेड़ के नीचे प्रकट हुई थी। यहां के लोगों ने इसे मन्दिर बना कर प्रतिष्ठा प्रदान की। एक अन्य कथनानुसार किसी कत्यूरी माण्डलिक राजा द्वारा सालम के शिल्पी से इस प्रतिमा को बनाया गया था। शिल्पी ने शासकीय सहायता से इस मूर्ति को अष्टधातु के मिश्रण से तैयार किया था। इसका प्रथम पुजारी गुरौ था। यह निःसन्तान था। इसके अनन्तर यहां के पालीवाल ब्राह्मण को पुजारी बनाया गया। आज तक पालीवाल ही इसकी पूजा अर्चना करते हैं।

यहां साक्षात फल प्रदान करते हैं सूर्य देवता

वर्तमान काल में पालीवाल के दो धड़े हैं। एक धड़े की पांच तथा दूसरे धड़े की तीन राठें हैं। बारी-बारी से पूजा का क्रम बना हुआ है। पुजारी को दो दिन पूर्व से ही सात्विक वृत्ति धारण करनी पड़ती है। यहां सूर्य पूजा पूस के रविवार, संक्रान्ति पर्व एवं अन्य विशिष्ट अवसरों पर होती है। सामान्य पूजा किसी भी दिन हो सकती है। भगवान को मालपुवा और खीर का भोग लगता है। शुद्ध धी और तिल के तेल की बत्ती जलाई जाती है। श्रद्धालुओं की मान्यता है कि यहाँ सूर्य देव साक्षात फल देने वाले हैं। अखण्ड दीपक यदि रात भर जलता रहे तो फल प्राप्ति निश्चित मानी जाती है। यदि निःसन्तान स्त्री रात्रि भर ‘ठाड़ा दिया’ जलाती है तो उसे अवश्यमेव सन्तान की प्राप्ति होती है।

अद्भुत है गुणादित्य की यह सूर्य प्रतिमा

सूर्य देवता की प्रतिमा

गुणादित्य की यह सूर्य प्रतिमा अष्टधातु निर्मित तीन फुट के आस पास ऊंची बताई जाती है। यह द्विभुजी है। ‘रूप मण्डन’ संस्कृत ग्रन्थ में भी सूर्य को द्विभुजी ही कहा गया है—
“सर्वलक्षण संयुक्तं सर्वाभरण भूषितम।
द्विभुजं चैकवक्वं च श्वेत पंकजधृक्करम्।।

इस प्रतिमा की दोनों भुजायें आशीर्वाद देने की मुद्रा में ऊपर को उठी हुई हैं। मुख मुद्रा मुस्कान युक्त किंतु शान्त है। गले में माला, पांव में जूता तथा घुटनों से ऊपर एक छोटा सा अधोवस्त्र है। एक उत्तरीय वस्त्र भी पास में झूलता प्रतीत होता है। माथे में मुकुट और इसके समीप आभामण्डल भी उकेरा गया है। चरणों के समीप दण्ड व पिंगल नामक दो सेवक खड़े दिखाए गए हैं। डॉ. रामसिंह ने मार्च 1974 में प्रकाशित ‘हिमाज्जलि’ पत्रिका के अपने एक लेख में इस प्रकार की बूटधारी आदित्य प्रतिमाओं को यूनानी प्रभाव युक्त गांधार शिल्प शैली का नमूना बताया है और इसका निर्माण काल चौथी से आठवीं शताब्दी के मध्य माना है। डी.एन. तिवारी राजकीय संग्रहालय अल्मोड़ा के मतानुसार “गुणादित्य की यह प्रतिमा उत्तराखण्ड में सूर्य पूजा के इतिहास में नए अध्याय का सूत्रपात करती है।”

तस्करों के हाथों तक पहुंच गई थी यह सूर्य प्रतिमा

सम्प्रति सूर्य की यह प्रतिमा गुणादित्य के मंदिर में नहीं है। इसके स्थान पर पत्थर पर उकेरी वैसी ही प्रतिमा बनवा कर रखी गई है। उत्तरांचल के कई मन्दिरों की मूर्तियों तथा बहूमूल्य अन्य उपकरण की भांति यहां की मूर्ति भी तस्करों द्वारा 16 अप्रैल 1982 की रात्रि को उड़ा ली गई। 23 अप्रैल 1982 को तत्कालीन आबकारी राज्य मंत्री स्व. गोवर्द्धन तिवारी का भ्रमण कार्यक्रम था। तिवारी जी इसी क्षेत्र के भी थे, अतः आनन-फानन में सारी सीमायें सील दी गयीं। तस्करों द्वारा मूर्ति गौला नदी की रेत में छिपा दी गई। कुछ दिन बाद जब यह मूर्ति दिल्ली ले जाई जा रही थी, तो हल्द्वानी के चौराहे पर मैटाडोर अकस्मात जाम हो गई और पुलिस के पकड़ में आ गई। तब इसे एक ईश्वरीय कृपा ही बताया गया था। इसमें तीन लोग पकड़े गए, किन्तु गिरोह के असली तस्कर हाथ नहीं आये या सांठ-गांठ के कारण ‘वहां’ तक हाथ नहीं पहुंचाए गए।

कहां गई अष्टधातु की मूर्ति ?

यह मूर्ति अल्मोड़ा के राजकीय संग्रहालय में सुरक्षित रख दी गई। आजकल यह स्टोररूम में बंद पड़ी है। इस अष्टधातु युक्त मूर्ति का मूल्य तब लगभग 40 लाख रूपये आंका गया था। श्री कृष्णा नन्द भट्ट ने अक्टूबर 1983 में प्रकाशित ‘पहाड़’ नामक पत्रिका के अपने हिमालयी सांस्कृतिक थात सम्बन्धी लेख में यह आशंका प्रकट की थी कि मूर्ति जब गायब हुई थी, तो अष्टधातु की बताया गया था, पर जो मूर्ति अल्मोड़े में आई है, वह पत्थर की है। तब असली मूर्ति कहां गयी। पालीगुणादित्य के तत्कालीन ग्राम प्रधान श्री मोतीराम काशीवाल भी इसे शत—प्रतिशत अष्टधातु की बताते हैं। वह कहते हैं कि दिल्ली से यह मूर्ति तस्करों द्वारा अमेरिका भेजी जानी थी, जहां इसका अनुमानित विक्रय 90 लाख रूपये होता। यह इनका अत्युक्तिपूर्ण के अनुमानभर हो सकता है तथापि वास्तविक तथ्य रहस्यपरक ही बना हुआ है। यहां के पूर्व सरपंच वन पंचायत प्रतियत श्री लक्ष्मीदत्त पालीवाल का मानना है कि मूर्ति पत्थर की ही है और संग्रहालय में अनुरक्षित मूर्ति गुणदित्य की वास्तविक मूर्ति ही है।

जो भी हो आज पहाड़ में चारों ओर माफियाओं तथा तस्करों द्वारा शोषण व दोहन का दोधारा चलाया जा रहा है। हमारी सांस्कृतिक सम्पदा के समक्ष संरक्षण का संकट उपस्थित हो गया है। विगत चालीस वर्षों में पहाड़ से अनेक बहुमूल्य मूर्तियां तथा सोने चांदी की अन्य वस्तुएं चोरी चुकी हैं। कुछ अमेरिका व ब्रिटेन में जा चुकी हैं। प्राचीन प्रस्तर प्रतिमायें भी इस प्रकरण से अछूती नहीं रही हैं। भौतिकवाद की चमक में आध्यात्मिक तत्त्व क्षीण होते जा रहे हैं। धार्मिक आस्था लुप्तप्रायः होती जा रही है। अस्तु हमारा दायित्व है कि हम अपनी सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित रखने हेतु सदैव रहें अन्यथा एक दिन हम अतीत की अपनी इस धरोहर से वंचित हो जायेंगे।

गुणादित्य की प्रतिमा निर्विवाद कत्यूरी शैली में
(दिनमान, 6-12 जून- 1982. मुक्तेश पंत और आनंद बल्लभ उप्रेती के आलेख के कुछ अंश)

कत्यूरियों का काल अप्रतिम मूर्तिकला के संरक्षण एवं मूर्तियों के निर्माण का काल रहा। ‘कत्यूरी सम्राटों’ ने अनेक सुन्दर मूर्तियों का निर्माण कराया व समूचे उत्तराखण्ड में दुर्गम से दुर्गम स्थलों पर एक से एक बेजोड़ कलाकृतियां स्थापित करवाने में पहल की। मूर्तिकला के इस आधार को ध्यान में रखते हुए गुणादित्य की चोरी गई यह मूर्ति 11वीं और 12वीं सदी को ठहराती है यद्यपि कुमाऊं में यह काल चंद शासकों का था। इस मूर्ति को चंद वंश का मानने का कोई औचित्य नहीं क्योंकि अधिक से अधिक यह चंद शासकों को कत्यूरियों की विरासत थी।

  • शासक जिनका नाम गुणा था, सम्भव है गुणादित्य नामक स्थान के लिए जिम्मेदार रहे हों, सूर्य अथवा आदित्य की प्रतिभा यहां होने के कारण इस गांव को ही गुणादित्य कहलाने का समीचीन आधार लगता है। मूर्तिकला की शैली के आधार पर गुणादित्य प्रतिमा का मुकुट स्पष्टतः कत्यूरी शैली में निर्मित है। सूर्य की प्रतिभायें प्रायः दो प्रकार से प्रदर्शित की जाती हैं- प्रथमतः पद्मपीठ व द्वितीयतः रथ पर आसीन, गुणादित्य की मूर्ति पद्मपीठ पर खड़ी है जिसके बांयीं ओर दण्ड और दायीं ओर पिंगल स्थित है, जो दोनों ही उनके परिचर माने जाते हैं, सूर्यदेव के दोनों हाथों में स्कन्दों के ऊपर सनाल विकसित कमल शुशोभित है और पीछे की ओर कमलासन है। प्रतिमा में घुटने तक पहुंचने वाले बूंट दर्शाये गए हैं, जो सूर्य की खड़ी प्रतिमाओं की एक निजी विशिष्टता है।

गुणादित्य के सूर्य मंदिर तक ऐसे पहुंचे —

यह मंदिर अल्मोड़ा जिला मुख्यालय से 52 किमी की दूरी पर स्थित है। अल्मोड़ा—पिथौरागढ़ रूट में दन्या से पहले काफलीखान नामक स्थान है, जो अल्मोड़ा से करीब 37 किमी दूर है। काफलीखान से भनोली मोटर मार्ग पर गुणादित्य नामक कस्बा है, जो काफलीखान से करीब 15 किमी दूर है। इसी गुणादित्य में सड़क से लगता यह सूर्य मंदिर है।

  • नोट — उक्त आलेख के अधिकांश अंश श्री प्रहलाद सिंह बिष्ट, ग्राम डुंगरा, पो. भनोली (अल्मोड़ा) के कत्यूरी मानसरोवर में प्रकाशित आलेख से साभार लिए गए हैं।

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