अल्मोड़ा : गौरा और महेश्वर को दी विदाई, 03 दिनी सांतू-आठू पर्व का समापन

सीएनई रिपोर्टर, अल्मोड़ा सांस्कृतिक नगरी अल्मोडा़ के चीनाखान में तीन दिवसीय सांतू-आठू पर्व का पूरे विधि-विधान से समापन हो गया है। अनाज, धतूरे व फल-फूलों…

सीएनई रिपोर्टर, अल्मोड़ा

सांस्कृतिक नगरी अल्मोडा़ के चीनाखान में तीन दिवसीय सांतू-आठू पर्व का पूरे विधि-विधान से समापन हो गया है। अनाज, धतूरे व फल-फूलों से गौरा-महेश की पूजा के बाद नम आखों से गौरा और महेश्वर को विदाई दी और केले के पेड़ के नीचे गौरा महेश्वर को विसर्जित किया गया।

उल्लेखनीय है कि महिलाएं इस पर्व को बडी हर्षो उल्लास के साथ मनाती हैं। महिलाएं पारंपरिक परिधान पहनकर एवं पूरा श्रृंगार कर घरों में धान, मादिरा, कुकुडी और माकुडी से भगवान शिव और माता गौरा बना कर उनकी शादी कर पूजा अर्चना करती हैं और दूसरे दिन सभी महिलाएं गौरा का पूरा श्रृंगार कर उन्हें शिव के साथ ससुराल को भेजती हैं। कहते हैं कि सातूं-आठूं पर्व में गौरा अपने मायके में रहती है। गौरा का विवाह शिव के साथ करवा कर गौरा को पूरे विधि-विधान के अनुसार ससुराल भेजा जाता है। जिसमें बिरूडे भिगोए जाते हैं।

इस दौरान पर्वतीय समाज के लोगों ने गौरा-महेश्वर की पूजा अर्चना की। महिलाएं गौरा-महेश्वर को बेटी-दामाद के रूप में पूजती हैं। अल्मोडा में सातूं-आठूं पर्व का समापन बडी़ धूम धाम के साथ किया गया। भाद्रपद मास में अमुक्ताभरण सप्तमी को सातूं और दूर्बाष्टमी को आठूं का लोकपर्व मनाकर गौरा-महेश के विवाह की रस्में निभाई जाती हैं। उत्तराखंड में कुमाऊं अंचल में अल्मोड़ा जिले से लेकर पिथौरागढ़ के गनाई-गंगोली व सोरघाटी तक और बागेश्वर से नाकुरी अंचल व चंपावत के काली-कुमाऊं सहित पड़ोसी देश नेपाल में अनेक स्थानों पर भाद्रपद मास में सातूं-आठूं का उत्सव धूमधाम व हर्षोल्लास से मनाया जाता है। सातूं-आठूं पर विवाहिता महिलाएं उपवास रखती हैं। सातूं को बाएं हाथ में पीले धागे युक्त डोर और अष्टमी को गले में दूब घास के साथ अभिमंत्रित लाल रंग के दुबड़े कहे जाने वाले खास धागे धारण कर अखंड सौभाग्य और सुख-समृद्धि की कामना करती हैं। जबकि कुंवारी युवतियां केवल गले में दुबड़े ही पहनती हैं। पंचमी के दिन बिरूडे भिगोए जाते हैं। सप्तमी के दिन धान की सूखी पराल या बंसा घास, तिल और दूब आदि से तैयार गौरा-महेश की मूर्ति बनाकर स्थापित की जाती है। वहीं विशेष पूजा-अर्चना में रात्रि जागरण व लोक संस्कृति पर आधारित गीत गाए जाते हैं। यह सिलसिला अष्टमी तक चलता है। इस दिन किसी खुले स्थान पर एकत्र होकर घर से लाए गए अनाज, धतूरे व फल-फूलों से गौरा-महेश की पूजा की जाती है।

ग्वल देवता से जुड़ी है यह कथा

इस पर्व की कथा गोलू देवता से भी जुडी़ है। कहते हैं कि चम्पावत के एक राजा की सात पत्नियां थीं, जिसमें से किसी भी रानी की कोई संतान नही होती है। राजा सभी रानियों को संतान प्राप्ती के लिए व्रत कर बिरूडा भिगोने के लिए बोलता है। जिसमें सात दाल गूहं, चना, राजमा, उडद, सोयाबीन, मटर, घौत को एक पोटली में एकत्रित किया जाता है। छः रानीयां उस बिरूडे में से कुछ को खा लेती हैं, जिससे छः रानियों का व्रत टूट जाता है। वहीं जब सातवी रानी को राजा बिरूडा भिगोने के लिए बोलता है तो सातवीं रानी का भी बिरूडा खाने का मन करता है, लेकिन वह बिरूडा नही खाती है। उसके बदले में वह अपने मुह में कोयला डाल खा लेती है, जिससे सातवी रानी गर्भवती हो जाती है। जो बाद में एक पुत्र को जन्म देती है जिनको गोलू देवता के नाम से जाना जाता है। छः रानीयों की कोई संतान नही होने के कारण छः रानीयां सातवी रानी से ईष्या हो जाती है। और छः रानीयां उस बच्चे को एक नदी के किनारे फैंक आती है। जो एक मछवारे को मिलता है और मछवारे के द्वारा ही उस पुत्र का पालन पोषण किया जाता है जब सातवी रानी का पुत्र नही मिलता है तो वह अपने मायके चली जाती है और अपनी मां को पूरी बात बताती है। तब उसकी मां अपनी बेटी को सरसों देकर कहती है कि इन सरसों को रास्ते में डालते हुए नौले के पास जाना। अगर यह सरसों हरे हो गए तो समझना कि तेरा पुत्र जीवीत है। वह रानी ऐसा ही करती है जब वह उस नौले पर पहुचती है और पानी पीने लगती है, तो गोलू देवता अपनी मां के हाथ का दुबडा़ पकड़ लेता है और अपनी मां से मिलता है। जब इस बारे में राजा को पता चलता है तो वह छः रानीयों का त्याग कर राजपाठ से बाहर कर देता है और सातवी रानी और उसके पुत्र को राजपाठ सौंप देता है। जिसके बाद से सांतू-आंठू पर्व की परंपरा शुरू हो गई।

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