अफसोस : दिव्यांगों की जिंदगी संवारने आये, बौद्धिक नगरी से हार कर लौटे

​सिर्फ मिला जुबानी समर्थन, मगर नहीं मिले मददगार छह माह का ही मेहमान रहा दिव्यांग केंद्र चंदन नेगी, अल्मोड़ा, 10 अगस्त यूं तो सामाजिक चिंतकों…

सिर्फ मिला जुबानी समर्थन, मगर नहीं मिले मददगार

छह माह का ही मेहमान रहा दिव्यांग केंद्र

चंदन नेगी, अल्मोड़ा, 10 अगस्त

यूं तो सामाजिक चिंतकों व समाजसेवियों की कमी नहीं है, मगर अफसोसजनक ये है कि जब कुदरती मार झेलते दिव्यांगों की जिंदगी संवारने का अल्मोड़ा में कोई बीड़ा उठाए, मगर इस नेक काम में वह सहयोग को तरस जाए तथा उसे मजबूर होकर अपने समाजसेवी हाथ पीछे खींचने पड़ें। यह बात तब ज्यादा सोचनीय हो जाती है, जब अल्मोड़ा जैसे बुद्धिजीवी शहर में ऐसा वाकया हो। यहां बात हो रही है अल्मोड़ा में खुले दिव्यांग बच्चों के आवासीय संसाधन केंद्र की। जो असहयोग की वजह से ही चंद महीनों का मेहमान रहा। जिसे खुलते वक्त जुबानी समर्थन तो खूब मिला, लेकिन जब मजबूरन बंद हुआ, तो किसी को पता नहीं चला। इस मामले ने मानवीय संवेदनाओं पर सवाल खड़ा किया है।
यहां उल्लेखनीय है कि हल्द्वानी के गौलापार में नेशनल एसोसिएशन फार दी ब्लाइंड नामक संस्था सालों से अस्तित्व में है। जो दृष्टिबाधितों एवं दिव्यांग बच्चों की जिंदगी संवारने में जुटी है। कुदरती मार से प्रभावित ऐसे बच्चों को संस्था शिक्षा देकर, उनकी प्रतिभा व विशिष्टता को उभारकर तथा कुशल नेतृत्व व सुविधा देकर उनके जीवन को आसान बना रही है और नई दिशा दे रही है। इसी संस्था से राह पाकर आज कई दिव्यांग अच्छी स्थिति में खड़े हुए हैं और उन्होंने जीवन की राह में दिव्यांगता को मात देने का उदाहरण प्रस्तुत किया है। इस संस्था के निर्देशन में कुछ लोग बैंकों में कार्यरत हैं, तो कई इंजीनियरिंग क्षेत्र में। कुछ प्राइवेट जॉब कर रहे हैं।
दरअसल, अल्मोड़ा जिले के जैंती तहसील अंतर्गत ग्राम बाराकोट निवासी श्याम सिंह धानक स्वयं दृष्टिबाधित हैं। उन्होंने हिम्मत जुटाई और दिव्यांग बच्चों के जीवन को संवारने के लिए कुछ करने की ठानी। दृढ़संकल्प के साथ इसी नेक कार्य की ओर उन्होंने कदम बढ़ाया। कहते हैं कि मेहनत व लगन वाले की हार नहीं होती, तो उनके अथक प्रयासों से गौलापार हल्द्वानी में नेशनल एसोसिएशन फार दी ब्लाइंड अस्तित्व में आ गई। बेहतर कार्य के जरिये आज यह एक बड़े संस्थान के रूप में उभर रहा है। जहां दिव्यांगों का जीवन सुधरने के साथ ही कई लोगों को रोजगार मिला है। वर्तमान में इस संस्थान में विभिन्न जिलों के करीब सवा सौ दिव्यांग बच्चों को मुफ्त शिक्षा ले रहे हैं। जिनके लिए भोजन-आवास की निःशुल्क व्यवस्था है।
इसी बीच संस्था के निदेशक श्याम सिंह धानक ने अपने गृह जनपद अल्मोड़ा में संस्था की शाखा खोलने की ठानी, ताकि पहाड़ी जिलों के दिव्यांग बच्चों को नजदीक पर ही सुविधा मुहैया हो सके। अथक प्रयासों के बाद जिला प्रशासन ने उन्हें दिव्यांग बच्चों के लिए आवासीय संसाधन केंद्र खोलने हेतु डायट अल्मोड़ा के माडल स्कूल के जीर्ण-क्षीर्ण भवन में तीन कमरे उपलब्ध कराए। संस्था के निदेशक श्याम धानक ने करीब दो लाख रूपये से अधिक की धनराशि खर्चने के बाद इन कमरों का जीर्णोद्धार कराया और इस केंद्र में 40 बच्चों के रहने की व्यवस्था के लिए चारपाईयां, बिस्तर, बर्तन व जरूरी फर्नीचर की व्यवस्था व अन्य जरूरी इंतजाम किए। यहां तक कि दो कर्मचारी भी तैनात किए। तब जाकर अल्मोड़ा में दिव्यांग बच्चों का आवासीय संसाधन केंद्र अल्मोड़ा खुला।
23 दिसंबर, 2019 को इस केंद्र का विधिवत उद्घाटन सीडीओ मनुज गोयल ने किया। इस समारोह में पालिकाध्यक्ष प्रकाश चंद्र जोशी समेत नगर के कई गणमान्य नागरिक मौजूद थे। उद्घाटन के वक्त सीडीओ समेेत कई लोगों ने श्री धानक के प्रयासों व कार्यों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। इस आवासीय केंद्र में पिथौरागढ़, चंपावत, नैनीताल आदि जिलों के 12 दिव्यांगों का प्रवेश भी हो गया। उनके अभिभावकों ने सुनहरे सपने संजोये। संस्था के निदेशक के अनुरोध पर पालिकाध्यक्ष प्रकाश चंद्र जोशी ने केंद्र पर शौचालय निर्माण की घोषणा की थी। मगर जब शौचालय निर्माण को श्री धानक ने एनओसी मांगी, तो उन्हें इन दिव्यांग बच्चों के लिए शौचालय बनाने के लिए डायट से एनओसी नहीं मिली। मुख्य जरूरत शौचालय का काम लटक गया। डायट द्वारा एनओसी देने के बजाय उनसे उन कमरों को खाली करने की बात कह दी, जिन पर उन्होंने अच्छी खासी रकम दशा सुधारने में लगाई थी। भले कारण कुछ भी रहे हों। श्री धानक को ऐसे असहयोग की बात से महसूस हुआ कि अल्मोड़ा में यह केंद्र खोलना उनकी गलती हो गई।
इस असहयोग से बेहद व्यथित होकर संस्था के निदेशक श्याम धानक ने अल्मोड़ा में केंद्र बंद करने का निर्णय ले लिया और 27 जून 2020 को मात्र 6 महीने में ही केंद्र को बंद कर इसके लिए क्रय किया गया लाखों का सामान उठा लिया और डायट के कमरे खाली कर दिए। निदेशक श्री धानक कहते हैं कि अल्मोड़ा में सुविधा नहीं मिली और डायट प्राचार्य के असहयोग से केंद्र बंद करना ही एक विकल्प था। उनका कहना है कि उनका लक्ष्य समाज सेवा है और वह राजनीति या गुटबाजी में पड़ना नहीं चाहते। इसी कारण उन्होंने इस बात की शिकायत भी नहीं की। उन्होंने बताया कि 12 दिव्यांग बच्चों में से तीन को वह हल्द्वानी केंद्र में ले गए जबकि अन्य को उनके अभिभावक घर ले गए।
एनओसी नहीं देने के बाबत डायट के प्राचार्य डा. राजेंद्र सिंह ने बयान दिया है कि केंद्र में शौचालय की जरूरत नहीं थी और शर्तों के तहत सीमित महीनों के लिए भवन दिया गया था। इस केंद्र को शुरू में मिले जुबानी समर्थन में कितना दम था, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि समर्थन करने वालों को भी केंद्र बंद होने का पता विलंब से चला या कई लोगों को अभी पता भी नहीं है। इसका सीधा अर्थ है कि इसकी तरफ ध्यान और संपर्क कम था। यह प्रश्नचिह्न कहा जाए या मानवीय संवेदनाओं से दूरी कि छोटे-छोटे मुद्दों पर आवाज उठाने व प्रतिक्रिया देने वाले अल्मोड़ा में इस मुद्दे पर सामाजिक व राजनैतिक संगठनों ने चुप्पी साध ली। वह भी तब जब मामला कुदरती मार झेलते दिव्यांग बच्चों के हित का हो। सच्चाई क्या थी, यह तो निष्पक्ष जांच से ही उजागर हो सकता है, लेकिन ऐसे केंद्र का बंद होना समाज हित में ठीक नहीं कहा जा सकता।

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