सीएनई सहयोगी देहरादून
उत्तराखंड के पर्वतीय व मैदानी भू—भागों में किसानों की खेती को सबसे अधिक नुकसान पहुंचा रहे वन्य जीव नील गाय और जंगली सुंअर को अब किसान फसलों की रक्षा हेतु मार सकेंगे। बावजूद इसके, वन विभाग ने इसके लिए मानकों को सरल बनाने की बजाए तमाम शर्तें लगाकर सब कुछ पेचिदा बना दिया है।
आपको याद होगा कि वर्ष 2016 से 2019 तक के लिए सरकार द्वारा जंगली शूकर मारने की अनुमति प्रदान कर दी थी। इसके बाद भी समस्या जस की तस दिखाई देने की वजह से अबकी बार पुन: उत्तराखंड में नील गाय और जंगली सूअर को फसल नाशक पशु घोषित करते हुए, नुकसान पहुंचाने की स्थिति में इन्हें मारे जाने की अनुमति काश्तकारों को दे दी है। मुख्य वन्यजीव प्रति पालक, उत्तराखंड ने बताया कि वन्यजीव प्रतिपालक की शक्तियों के तहत जंगली सूअर और को नाशक पशु (वर्मिन) घोषित किया है। इन वर्मिन घोषित वन्यजीव को डीएफओ की अनुमति के बाद ही मारा जा सकता है। फिर भी, जहां एक तरफ सरकार ने अनुमति दी वहीं वन विभाग ने इनको मारने से पूर्व ऐसी शर्तों को पूरा करने का आदेश दे दिया, जो किसानों के गले नही उतर रहा है। ज्ञात रहे कि नेशनल बोर्ड आफ वाइल्ड लाइफ (एनडब्लूएसी) ने मामले में बीते दिनों आदेश जारी किया था। इसमें उसने इन जीवों के संबंध में राज्य सरकार को मामले में खुद निर्णय लेने को कहा था। इसके बाद वन विभाग ने वन रोज और सूअर को शर्तों के साथ मारने की इजाजत दे दी है। किंतु इससे पूर्व कुछ शर्तें व सख्त नियम भी लागू कर दिए हैं। जैसे, इसके लए विधिवत आवेदन में प्रधान की संस्तुति अनिवार्य होगी, विभाग द्वारा दी गई अनुमति सिर्फ 15 दिन तक मान्य होगी, केवल वन भूमि से बाहर ही इन पशुओं का शिकार किया जा सकेगा। घायल होकर जंगल में घुसने पर इनको नही मारा जायेगा तथा इनका शिकार केवल बंदूक या रायफल से करना होगा। किसानों का कहना है कि इन नाशक पशुओं को मारने से पूव प्रधान की संस्तुति तक तो बात ठीक है, लेकिन विभागीय अनुमति वह भी सिर्फ 15 दिन के लिए, बंदूक व रायफल से ही शिकार की इजाजत जैसे नियम सही नही हैं। किसानों का कहना है कि यदि सरकार व विभाग सही अर्थों में काश्तकारों को इन जीवों से पहुंच रहे नुकसान को लेकर चिंतित है तो नियमों व शर्तों का सरलीकरण करना चाहिए। कम से कम तीन साल तक इनके बे रोक—टोक शिकार को पूर्ण अनुमति प्रदान कर देनी चाहिए, ताकि ऐसे हानिकारक पशुओं की बढ़ती आबादी को नियंत्रित किया जा सके। ऐसे ही फैसलों तमाम अन्य देशों में सरकारों ने समय—समय पर लिए हैं।