नवसंवत्सर पर विशेष — रत्नों की विलक्षण दुनिया और ग्रहों से रत्नों का जोड़

”नैसर्गिक गर्भ और रत्न” शरीर ज्ञान-परिज्ञान से अनभिज्ञ, आदि नग्न मानव निरुद्देश्य घूमता था। पत्थर उठाया, मारा, शिकार करके पेट की ज्वाला शांत कर ली।…

”नैसर्गिक गर्भ और रत्न”

शरीर ज्ञान-परिज्ञान से अनभिज्ञ, आदि नग्न मानव निरुद्देश्य घूमता था। पत्थर उठाया, मारा, शिकार करके पेट की ज्वाला शांत कर ली। आज के छत्तीस प्रकार के भोज्य पदार्थ और छत्तीस प्रकार की नई-नई खोजपूर्ण उपलब्धियां उस समय कहां थी ? पत्थर युग फिर धातु युग, सोना-चांदी, तांबा, लोहा अस्तित्व में आये। पत्थर युग के बहुमूल्य पत्थर जो प्रकृति के गर्भ में छिपे पड़े थे, उन पर भी मानव सभ्यता की पैनी दृष्टि पड़ी। बेशकीमती व आकर्षक पत्थरों के टुकड़े रत्न, हीरे, पन्ना, पुखराज आदि नाम लेकर विश्वविख्यात हुए।

रत्नों की दुनियां बड़ी विलक्षण और चिंताकर्षक रही है और आज भी है। रत्न का शाब्दिक अर्थ हम लें, तो आभायुक्त व दीप्तिमान, कठोर तथा बहुमूल्य स्फटिक है। अन्यानेक रत्नों में आचार्यों ने नौ रत्नों को नवग्रहों के लिए निश्चित करके मनुष्य के भाग्य से जोड़ दिया है। ‘चौरासी पाषाण के अनुसार वैसे 84 रत्न अस्तित्व में हैं। रत्नों की महिमा मंडित करने के लिए कविरत्न, देशरत्न, वेदरत्न न मालूम कितने ही विशेषण देकर याद किया जाता है। ज्योतिषाचार्यों द्वारा नौ ग्रहों पर नौ रत्न मानव के राशिफल व कुंडली से जोड़ देने से इनका महत्व और बढ़ जाता है।

प्रथम सूर्यरत्न: सूर्यग्रह व्यक्ति के वैभव व सफल जीवन के लिए माना गया है। इसलिए उसकी ठीक अनुकम्पा बनी रहे, व्यक्ति को सूर्यरत्न धारण करने का शास्त्रोक्त निर्देश है। संस्कृत में कुरविद, पदमरत्न व लोहित, अरबी में लाल बदख्शा तथा अंग्रेजी में रूबी कहा जाने वाला माणिक एक सख्त खनिज़ है, जो प्रकृति के आक्सीजन, क्रोमियम व लोहे के मिलाप से बन जाता है। यह पारदर्शी चमकदार माणिक मूल्यवान होता है। जिसके कारण जनसाधारण इसका उपयोग सोच भी नहीं पाते। इसलिए इसके सूर्यकांत तथा ताम्रमणि दो रत्न और हैं, जिनके प्रयोग से सूर्यग्रह की दशा को ठीक रखा जा सकता है। ताम्रमणि भारत और सूर्यकांत मणि नार्वे तथा फिनलैण्ड की खानों से
उपलब्ध होता है। वर्मा, श्रीलंका, अफ्रीका काबुल आदि से भी माणिक मिलते हैं। लाल और कमल जैसे रंग के माणिक अक्सर पाये जाते हैं। वैसे गुलाबी माणिक सर्वोत्तम है। सूर्य नक्षत्र में सोने, चांदी, तांबा या इनके मिश्रण में पांच से नौ रत्ती भार का माणिक लगवाकर कन्नी उंगली के पास वाली उंगली में पहनना चाहिए। सूर्यरत्न जड़ित मुदरी को गंगाजल, केसर व गोरोचन में शोधकर और उसे धूप देकर पहनने से शुभ होता है।

दूसरा चन्द्ररत्न: चन्द्ररत्न जिसका मुख्य रत्न मोती है वह मानव कुंडली में गिरते हुए चन्द्रग्रह की स्थिति ठीक करने के लिए होता है। संस्कृत का मुक्ता, शुक्तिज, फारसी का मुखारीद और अंग्रेजी का पर्ल सीपी से मिलता है। वह भी किसी-किसी सीपी से। कैल्शियम कार्बोनेट से तैयार होने वाला मोती अपनी और कई जाति रखता है। चन्द्रमा मानव शरीर की संरचना में, मन, भावना, कफ, स्पर्श आदि को प्रभावित करता है। इसलिए मोती और उसके अन्य रत्न धारण करने से इन स्थितियों को संभाला जा सकता है। मोती की दुर्लभ जातिओं में—मीन मुक्ता, जो किसी विशेष मछली से प्राप्त होती है। गजमुक्ता विरल हाथी के मस्तक से, शंखमुक्ता-केवल पांचजन्य शंख की नाभि से, सर्वमुक्ता- केवल वासुकि सर्प के मस्तक से, वराहमुक्ता-एक विशेष जंगली शुकर से ही, वंशमुक्ता-बाँस से तथा मेघमुक्ता हैं। प्रत्येक चन्द्रग्रह राशीय व्यक्ति को चार रत्ती से सात रत्ती भार वाला मोती चांदी की मुद्रिका में लगवाकर कन्नी उंगली में पहनना चाहिए। रत्नजड़ित मुदरी को पहले गौ दूध में, फिर केसर में शोधकर उसे धूप लगाकर धारण करना ही श्रेयस्कर होता है।

तीसरा मंगलरत्न: मंगलग्रह मानव के रक्तचाप व चर्बी आदि पर असर डालता है। इस राशि वाले मनुष्य को अपने साहस-धैर्य के प्रतीक मंगल रत्न धारण करके मंगलग्रह के उपादेयफल प्राप्त करने चाहिए। मंगलग्रह का खास रत्न मूंगा है। संस्कृत में इसे प्रवाल, रक्तंग, विद्वम, फारसी में मिरजान और अंग्रेजी में जन्म लेता है। आस्ट्रेलिया का उत्तरी सागर, भूमध्य सागर, वर्मा अल्जीरिया देशों की तटवर्ती चट्टानें मूंगे के उद्भव केन्द्र हैं। असली मूंगा चिकना होता है। इसका दूसरा विकल्प विद्रुभमणि है। मंगलरत्न, स्वर्ण व तांबे से बनी मुदरी में पांच से आठ रत्ती का मूंगा लगवाकर दायीं अनामिका या बायीं मध्यमा में धारण करना चाहिए। शास्त्रोक्त शोध करना भी आवश्यक है।

चौथा बुधरत्न: यह रत्न बुध ग्रह राशीय व्यक्तियों को धारण करना चाहिए ताकि मस्तिष्क व प्रतिभा-यश बनाए रहने के साथ-साथ अन्य शरीराग वक्ष, बाणी, वायु, रक्त आदि भी अपनी मर्यादा में बने रहें। बुधरत्न का उपादेय रत्न पन्ना है। संस्कृत में इसे मर्कत, गरुडांकित, अस्मगर्भ, फारसी में जमुर्रद और अंग्रेजी में एमराल्ड कहते हैं। ऐल्यूमीनियम, बैरोलियम व आक्सीजन तथा रेत से बने इस पन्ने की श्रेष्ठ जाति भारत में उदयपुर, अजमेर में अमरीका, अफ्रीका, पाकिस्तान, साइबेरिया व ब्राजील आंचलों से उपलब्ध है। सुंदर, नाजुक इस खनिज पत्थर की कीमत अधिक होती है इसलिए इसके अभाव एक्वामेरीन, मरगज, पीत व हस्तिमणि भी प्रयोगार्थ उत्तम बताई गई है। चार से छः रत्ती भार वाला पन्ना सोने, चांदी व तांबे के मिश्रण में जड़वाकर दायीं कन्नी या उसके पास वाली उंगली में धारण करना चाहिए। मुद्रिका को गौमूत्र, केसर व गंगाजल में धोकर, उसे धूप देकर पहनना आवश्यक है।

पांचवां गुरुरत्न: गुरु ग्रह व्यक्ति की बुद्धि, लेखन-कला, वेदशास्त्र व तन्त्रमंत्र विद्या पर प्रभाव डालता है। गुरुरत्न पुखराज है। इस मनोहारी नीलम को संस्कृत में पुष्पराग, गुरुवल्लभ, फारसी में याकूत और अंग्रेजी में टोपाज कहते हैं। एल्यूमीनियम, फ्लोरीन तथा हाइड्रोक्सिल तत्वों से बना यह चिकना पीला पुखराज कुछ भारापन लिए होता है। इसके कुछ अन्य रत्न सोनल, केरु, केसरी, क्राइसोलाइट भी हैं जो उपयोग के लिए उपयुक्त बताये गये हैं। श्रीलंका, ब्राजील, वर्मा यूराल आदि पुखराज की देन हैं। पांच से बारह रत्ती भार वाला पुखराज चांदी की मुद्रिका में जड़वाकर दांयी तर्जनी या कन्नी उंगली में पहनना शुभ है। मुद्रिका को गुरुवार के दिन गो दुग्ध व केसर में शोधकर पहनना आवश्यक है।

छठा शुक्ररत्न: एक राक्षस के नाम पर जाना जाने वाला यह अन्य ग्रहों से सुन्दर और आभायुक्त है। व्यक्ति की कामवासना, वाक्चातुर्य, कलात्मक पहलू, श्रृंगार व साज-सज्जा पहलुओं, सभी को यह ग्रह प्रभावित करता है। शुक्रग्रह का किसी व्यक्ति की कुंडली में अशुभ होने का हस्र स्वयं देखा जा सकता है। इसलिए सबकुछ सामान्य रखने के लिए शुक्ररत्न हीरे का प्रयोग सुझाया गया है। संस्कृत में हीरक, बज्रपवि, अर्कविद्युत, मणिवर, अरबी में अलमास और अंग्रेजी में डायमंड कहलाने वाले रत्नराज हीरे के लिए भारतवर्ष विश्व विख्यात रहा है। प्रकृति की अनुपम देन कार्बन तत्व से निर्मित होती रत्नों से कुछ और कठोर होता है। यह इन्द्रधनुषी रत्न घिसाव तथा रगड़ नहीं खाता।

प्राचीन ग्रंथ, नर, मादा, नपुंसक तीन जाति भी हीरे की दर्शाते हैं। हीरा क्योंकि आशातीत मंहगा होता है, इसलिए कुछ और विक्रांत, कुरंगी, देतला, ओपल, कैंसला आदि भी उपयोगार्थ बताये गये हैं। ‘गरुण पुराण’ में वारितर नामक हीरा सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। जग प्रसिद्ध कोहिनूर भारतीय गर्भ से निकलकर, प्रथम दानवीर कर्ण से लेकर ईरान होता हुआ फिर वापस भारत आया। यहां से फिर निकला और आज इग्लैण्ड के राजमुकुट में दो टुकड़ों में बंटकर दमक रहा है। बोर्निओ, अमरीका, रूस में भी हीरों की पैदावार होती है और इन जगहों में आमदरफ्त भी है इसकी। प्रमुख हीरा प्लेटीनम की मुद्रिका में केवल एक रत्ती और अन्य छः से सत्रह रत्ती तक चांदी की मुंदरी में लगवाकर पहनना चाहिए। साथ-साथ शुक्रवार के दिन मुद्रिका को दांयी कन्नी में, गो दूध, गंगाजल व केसर में शोधकर, फिर उसे धूप लगाकर पहनना ही शुभकर है।

सातवां शनि रत्न: शनि की शुभ कृपा व्यक्ति को दार्शनिक, योगी और स्वास्थ्यवर्धक बनाती है जबकि अशुभ घड़ी शरीर विकार तथा अनेक पापों को जन्म देती है। समूचे ग्रहराज्य में शनिग्रह सबसे भयंकर और निम्न प्रकृति वाला ग्रह है। इसलिए इसकी सही अनुकम्पा बनाये रखने के लिए नीलम का प्रयोग वांछनीय है। संस्कृत में वाचीनाम, नीलरत्न, तृष्णशाही, शौरि, फारसी में याकूत और सेफायर अंग्रेजी में पुकारा जाता है। एल्युमीनियम, आक्सीजन तथा कोबाल्ट तत्वों के मिलाप से बना नीलम कुछ कठोर अवश्य होता है, लेकिन सूर्य की किरणों में प्रकाशपुंज सा देने लगता है। जमुनिया, लाजवर्त तथा नीलीरत्न नीलम के अभाव में प्रयोग किये जा सकते हैं। नीलम चार से नौ रत्ती भार तक, चांदी, शीशा, रांगा तीनों के मिश्रण से बनी अंगूठी में लगवाकर बांये हाथ की बीच वाली उंगली में पहनना चाहिए। पहनने का उचित समय शनिवार है। तथा जड़ित अंगूठी केसर व गंगाजल में शोधकर तथा धूप देकर ही पहनें।

आठवां नवरत्न राहुरत्न है: राहु ग्रह भले ही ग्रह माना गया है, लेकिन यह है नहीं। केवल छायामात्र ही है। इसलिए अशुभ राहु के प्रभाव को, जिसमें ऊलजलूल बातों का समावेश होता है, निग्रह करने के लिए गोमेद रत्न का प्रयोग बताया है। कई सुहावने रंगों में उपलब्ध गोमेद जिक्रोनियम तत्व से तैयार होता है। इस नरम पत्थर के अभाव में, साफी, तुरसावा, दो. रत्न प्रयोगार्थ हैं। स्वर्ण, रजत, ताम्र, शीशा व लोहे रूपी पंचधातु में आठ से सत्ताईस रत्ती तक राहुरत्न जड़वाकर पहनना शुभ धूप है। मुद्रिका को गोरोचन, केसर तथा गंगाजल में शोधकर दें, उसके बाद बांयी मध्यमा में धारण करें।

अंतिम नवां रत्न केतुरत्न: इस ग्रह का भी अलग कोई अस्तित्व नहीं है। राहु-केतु के अरीब-करीब एक जैसे गुण हैं। केतु मनुष्य की काया, साहस, बुरे आचार-विचार, अस्वाभाविक व्यापार, व समुद्री यात्रा जैसे पहलुओं को प्रभावित करता है। उपरोक्त केतु क्रिया-कलापों पर सम्यक् अधिकार बना रहे, इसलिए ज्योतिषाचार्य दिलकश लहसुनिया का प्रयोग कर देते हैं। संस्कृत में विदुर व वैदुर्य, मेघखरांकुर, राष्टुक, अरबी में अनलहिर और अंग्रेजी में कैट्सआई कहा जाने वाला रंग बिरंगा लहसुनिया पेग्माइटनाइस और अमरक तत्वों से निर्मित है। सफेद धारियों वाला पीतवर्णी लेकिन हरित आभायुक्त बिल्लौरी आंख वाला सा लहसुनिया श्रेष्ठ माना गया है। श्रीलंका का लहसुनिया रत्न दिल फरेब होता है। इसके अलावा भारत, अफ्रीका, अमरीका, ब्राजील तथा यूराल में भी यह उपलब्ध होता है। इसके अभाव में अलक्षेन्द्र, कार्वोतक, पूयेनाक्ष, गादन्ती-गोदन्ता तथा व्याघ्रांश रत्न प्रयोगार्थ बताये गये हैं।केतु राशि वाले व्यक्ति को तीन धातु स्वर्ण, रजत, ताम्र से बनी मुद्रिका में सात से सत्रह रत्ती तक वजन का रत्न लगवाकर धारण करना चाहिए। रत्न जड़ित अंगूठी को केसर, तुलसी तथा गंगाजल में शुद्ध करके बायीं मध्यमा में ग्रहण करने से केतु ग्रह फलदायक सिद्ध होता है।

रत्नों की यह स्फुटिकीय दुनिया तो है ही अद्वितीय, जिनका समुद्र और खानों से जन्म होता है। साथ-साथ विचित्र रसायनिकों के आपसी मिलाप भी कम खूबसूरत गुल नहीं खिलाते। किन्तु और आश्चर्यचकित करने वाले हैरतअंगेज रत्नों को देखकर तो यही कहा जायेगा, हैं! ये शिवलिंग व शालिग्राम, जम्बुकी, काली तुंबी, रीछ की नाभि, रुद्राक्ष, पारदर्शी व्याघ्रनख, काली हल्दी व काला मृग चर्म, श्रीफल, नागचन्द्रा, शुभश्रंगी भी रत्नों की दुनिया है।

  • (नोट— बैनी कृष्ण शर्मा द्वारा लिखा गया उक्त ज्ञानवर्धक आलेख कत्यूरी मानसरोवर के अक्टूबर—दिसंबर 1996 अंक से साभार लिया गया है)

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