देहरादून न्यूज : यूसर्क ने लॉक डाउन का उठाया लाभ, नौला का विज्ञान पर किया वेबीनार आयोजित

देहरादून। कोविड 19 के विश्वव्यापी संकट में प्राकृतिक जल स्रोतों के महत्व एवं योगदान को समझते हुए उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवम् अनुसंधान केंद्र (युसर्क) देहरादून…

देहरादून। कोविड 19 के विश्वव्यापी संकट में प्राकृतिक जल स्रोतों के महत्व एवं योगदान को समझते हुए उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवम् अनुसंधान केंद्र (युसर्क) देहरादून तथा नौला फाउंडेशन के संयुक्त तत्वाधान में परंपरागत जल स्रोत, नोलो धारों के संरक्षण एवं संवर्धन हेतु एक वेबीनार ‘नौला का विज्ञान’ विषय पर ऑनलाइन आयोजित किया गया। इस ऑनलाइन सम्मेलन में देशभर के हिमालय जल स्रोतों के विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों, पर्यावरणवि दो तथा नौला मित्रों ने लगभग सूख चुके परंपरागत हिमालय जल स्रोतों, नॉलो, धारों को सामूहिक सहभागिता से पुनर्जीवित करने के साथ सामुदायिक स्थानीय स्तर पर जल की मांग और पूर्ति में सामंजस्य स्थापित बनाने के लिए विशेष जल चर्चा में भाग लिया और अपने विचार व्यक्त किए। कार्यशाला का शुभारंभ करते हुए मुख्य अतिथि के तौर पर खटीमा के विधायक पुष्कर सिंह धामी ने परंपरागत नौलों—धारों के सूखने पर गंभीर चिंता व्यक्त की । धामी ने बताया कि पुरातन जल संस्कृति के विज्ञान को वर्तमान दौर में भी समझने की जरूरत है धारे एवं नौले हमारी संस्कृति के प्रतीक रहे हैं। इन्हें वर्तमान में संस्कृति का वाहक बना कर जन चेतना के लिए उपयोग में लाना होगा। शादी एवं अन्य मांगलिक कार्यों का शुभारंभ पहले नौलों धारों के पूजन से होता था अब यह परंपरा धीरे धीरे विलुप्त हो रही है। अतः नौलो धारों के संरक्षण हेतु इस प्रकार की परंपराओं को पुन: प्रचलन में लाना होगा।
यूसर्क के निदेशक प्रोफ़ेसर दुर्गेश पंत ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि मानवीय दोहन से भूमिगत जल का निरंतर हृास हो रहा है जहां पहले तालाब पोखर नॉले इत्यादि प्राकृतिक भूमिगत जल स्रोत थे वहां कंक्रीट का जंगल खड़ा हो गया है सीमेंट एवं डामर की सड़कें बन गई हैं विकास के चलते जंगलों का हास हुआ है जिसके कारण वर्षा का जल जमीन में पूर्ण रूप से अवशोषित नहीं हो पा रहा है वर्षा जल को अवशोषित करने के लिए जमीन दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है। जनसंख्या बढ़ने के साथ-साथ प्रति व्यक्ति जल की खपत भी बढ़ती जा रही है। भूमिगत जल के अत्यधिक दोहन का कृषि पर भी विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। आज आवश्यकता है कि लुप्त प्राय इन प्राकृतिक एवं परंपरागत जल स्रोतों को पुनर्जीवित किया जाए और उस तकनीक को विकसित किया जाए जिसे हमारे पूर्वजों ने सदियों पहले अपना कर प्रकृति और संस्कृति को पोषित किया था।
नौला फाउंडेशन के पर्यावरणविद स्वामी वीत तमसो के अनुसार हिमालय परिक्षेत्र के 45.2 प्रतिशत भू-भाग में मिश्रित घने जंगल हैं । यहाँ नदियों, पर्वतों के बीच में सदियों से निवास करने वाले लोगों के पास हिमालयी संस्कृति एवं सभ्यता को अक्षुण्ण बनाए रखने का लोक विज्ञान भी मौजूद है । प्राकृतिक संसाधन लोगों के हाथ से खिसक रहे हैं । विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक विश्व में साल 2031 तक सिर्फ 40% लोगों को ही पीने का जल उपलब्ध हो पायेगा। हमें नदियों से पहले पानी के स्रोत यानी स्प्रिंग पर फ़ोकस करना होगा तभी नदियों में पानी रहेगा। यहाँ हम यदि पानी पर ही बात करें और वह भी हिमालय के पानी पर। उस हिमालय के बारे में जो उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों के बाद सबसे अधिक हिम अपने पास आज भी रखे हुए हैं। जलवायु परिवर्तन से हिमालय क्षेत्र में वर्षा के पैटर्न में परिवर्तन हुआ है और जो हिमनद बचे हैं, उनके समाप्त होने में ज्यादा समय नही लगेगा। अर्थात, वर्षा कम होगी तो हिम कम बनेगा और जितना बनेगा भी उतना टिकेगा भी नही तापमान बढ़ने के कारण। आज हिमालय क्षेत्र में पानी कम होने के भी अनेक कारण हैं। पर्वतों, हिमनदों, नदियों, जलागम क्षेत्रों, वनों, कृषि जोतों, गूलों-कूलों-नहरों, वर्षाजल प्रबन्धन, इत्यादि को लेकर जनपक्षीय नीतियाँ बनानी होगी।
प्रसिद्ध पर्यावरणविद पद्मश्री कल्याण सिंह रावत ‘मैती’ के अनुसार भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के 16.3 प्रतिशत भूभाग में फैले हिमालयी क्षेत्र को समृद्ध जल टैंक के रूप में माना जाता है । अतएव पहाड़ की जवानी और पानी दोनों पहाड़ से पलायन कर रही है । अर्थात योजनाकार कागजों में ग्लेशियरों, पर्वतों, नदियों व जैव विविधता के सरंक्षण की अच्छी खासी योजना बना देंगे परन्तु ये योजनाएँ अब तक ज़मीनी रूप नहीं ले पाई । हिमालयी क्षेत्र को अलग-अलग राज्यों में विस्तृत तो किया गया मगर विकास के मानक आज भी मैदानी ही हैं। फलस्वरूप इसके हिमालय का शोषण बढ़ा हैं। आपदाओं का चक्र तेज हो गया है। वृक्ष खेती, फल खेती, छोटी – छोटी पनबिजली को उद्योगों के रूप में विकसित करने की योजना सिर्फ बयानबाजी की बात ही रह गई है। स्थानीय जल संरक्षण की विधियों को जो प्रोत्साहन मिलना चाहिये था वह नहीं मिला है, लेकिन इसके स्थान पर सीमेंटेड जल संरचनाएँ बनाई जा रही हैं, जिसके प्रभाव से जलस्रोत सूख रहे हैं।
राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान, रुड़की से हाइड्रोलोजिस्ट डॉक्टर अनिल लोहानी एवं डॉक्टर सोबन सिंह रावत ने बताया की जल शक्ति मंत्रालय भारत सरकार, परम्परागत जल स्रोत स्प्रिंगस को पुनर्जीवित करने के लिए गंभीर हैं और स्प्रिंग्स मैपिंग के साथ साथ स्प्रिंग्स हाइड्रोलॉजी पर कार्य शुरू भी हो गया हैं जिसका परिणाम जल्दी दिखेगा। पृथ्वी पर जल दो रूपों में विद्यमान है। पहला सतह पर दिखाई देने वाला जैसे नदियाँ, झील, झरने, तालाब, समुद्र आदि । दूसरा भूमिगत जल – वर्षा जल का 10 से 20% भाग अवशोषित होकर भूगर्भ में चला जाता है। इसी जमीन के अन्दर विद्यमान जल को कुआँ, नौला, नलकूप आदि के माध्यम से बाहर लाकर उपयोग में लाया जाता है। नौले /धारे का शुद्ध जल मृदुल, पाचक और पोषक खनिजों से युक्त होता है।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए यूसर्क के वैज्ञानिक डॉ राजेंद्र सिंह राणा बताया कि उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में जल की आपूर्ति का परंपरागत साधन नौला या धारा रहा है सदियों तक पेयजल की निर्भरता इसी पर रही है। नौला मनुष्य द्वारा विशेष प्रकार के सूक्ष्म छिद्र युक्त पत्थर से निर्मित एक सीढ़ीदार जल भण्डार है, जिसके तल में एक चौकोर पत्थर के ऊपर सीढ़ियों की श्रंखला जमीन की सतह तक लाई जाती है। सामान्यतः सीढ़ियों की ऊंचाई और गहराई 4 से 6 इंच होती है, और ऊपर तक लम्बाई – चौड़ाई बढ़ती हुई 5 से 9 फीट (वर्गाकार) हो जाती है। नौले की कुल गहराई स्रोत पर निर्भर करती है । आम तौर पर गहराई 5 फीट के करीब होती है ताकि सफाई करते समय डूबने का खतरा न हो। नौला सिर्फ उसी जगह पर बनाया जा सकता है, जहाँ प्रचुर मात्रा में निरंतर स्रावित होने वाला भूमिगत जल विद्यमान हो। इस जल भण्डार को उसी सूक्ष्म छिद्रों वाले पत्थर की तीन दीवारों और स्तम्भों को खड़ा कर ठोस पत्थरों से आच्छादित कर दिया जाता है। प्रवेश द्वार को यथा संभव कम चौड़ा रखा जाता है। छत को चारों ओर ढलान दिया जाता है ताकि वर्षाजल न रुके और कोई जानवर न बैठे। आच्छादित करने से वाष्पीकरण कम होता है और अंदर के वाष्प को छिद्र युक्त पत्थरों द्वारा अवशोषित कर पुनः स्रोत में पहुँचा दिया जाता है। मौसम में बाहरी तापमान और अन्दर के तापमान में अधिकता या कमी के फलस्वरूप होने वाले वाष्पीकरण से नमी निरंतर बनी रहती है। सर्दियों में रात्रि और प्रातः जल गरम रहता है और गर्मियों में ठंडा।
नौला मित्र महेंदर सिंह बनेशी के अनुसार नौला फाउंडेशन मध्य हिमालयी क्षेत्र में सामुदायिक जन सहभागिता पर केन्द्रित एक गैर लाभकारी सामाजिक सेवा संगठन हैं जो परस्पर सामाजिक सहभागिता के साथ साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण से नौले धारों के सरंक्षण व संवर्धन पर परम्परागत विधि से ही सफलता पूर्वक कार्य कर रहा हैं जिसके कुछ परिणाम आ भी चुके हैं I नौला को पर्वतीय ग्रामीण क्षेत्र की संस्कृति के साथ जोड़ कर देखने की जरूरत है। नौला मित्र संदीप मनराल के अनुसार नौला पर्वतीय क्षेत्र की संस्कृति और संस्कारों का दर्पण है। हिन्दू परिवारों की धरोहर इन नौलों को क्षीर सागर का प्रतीक माना जाता है, जिसमें श्री हरि विष्णु और लक्ष्मी सदैव वास करते हैं।वास्तुकला के बेजोड़ नमूने स्तम्भों और दीवारों पर पौराणिक कथाओं पर आधारित देवी देवताओं के चित्र उकेरे होते हैं।
प्राचीन जल विज्ञान पर शोधकर्ता डॉक्टर मोहन चन्द्र तिवारी के अनुसार लगभग पांच-छह दशक पूर्व तक पर्वतीय ग्रामीण क्षेत्रों में शुद्ध पेयजल का एकमात्र स्रोत नौला था। नौलों की देखभाल और रखरखाव सभी मिलजुलकर करते थे। प्रातःकाल सूर्योदय से पहले घरों की युवतियाँ नित्य कर्म से निवृत्त हो तांबे की गगरी लेकर पानी लेने नौले पर साथ साथ जाती, बतियाती, गुनगुनाती, जल की गगरी सिर पर रख कतारबद्ध वापस घर आती, अपने अपने काम में जुट जाती थी। समय समय पर परिवार के अन्य सदस्य भी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नौले से ही जल लाते थे। घर पर रहने वाले मवेशियों के पीने के लिए और छोटी छोटी क्यारियों को सींचने के लिए नौले से ही जल लाया जाता था।नौले के माध्यम से आपस में मिलना जुलना हो जाता, सूचनाओं का आदानप्रदान हो जाता था। आपसी मेलजोल से सद्भावना सुदृढ़ होती थी। ग्रामीण परिवेश में नौला, हिन्दू धर्म के लगभग सभी संस्कारों के प्रतिपादन का साक्षी रहा है। नैवेद्य का प्रसाद ग्रहण करते और पूजा सामग्री का विसर्जन कर जल से भरी गगरी लेकर घर वापस आ जाते, तब नामकरण संस्कार पूर्ण माना जाता था। विवाह संस्कार भी नौला भेंटने के बाद ही पूरा होता था।
पर्यावरणविद बिशन सिंह ने बताया हमारे सांस्कृतिक परम्परा और सभ्यता के वाहक गाड़, गधेरे, नौले, धारे और चुपटैले इतिहास बनने की दहलीज पर तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। कहा जाता है कि दुनिया में तीसरा विश्व युध्द पानी को लेकर होगा। आप देखें दिल्ली अब उत्तराखंड की और बढ़ चुकी है जैसे-जैसे जनसँख्या बढ़ रही है हम अपने प्राकृतिक संसाधनों से दिनों-दिन उतने ही दूर होते जा रहे हैं। हिमालय जिसे प्रकृति से भरपूर प्राकृतिक धरोहरों से लबरेज किया है विडम्बना देखिए उनसे लोग और नीतिकार स्वयं ही दूर हो रहे हैं। अगर हिमालय को बचाना है, अपने अस्तित्व को बचाना है तो हमें पानी को बचाना ही होगा। जब पहाड़ों में नौले-धारे सुरक्षित होंगे तभी हम सुरक्षित रह पायेंगे, प्राकृतिक रह पायेंगें ।
उक्त कार्यक्रम में मुख्य रूप से युसर्क के वैज्ञानिक डॉओम प्रकाश नौटियाल, डॉ भवतोश शर्मा, डॉ मंजू सुंद्रियाल, शाही देवी समिति के गजेंद्र पाठक, डॉ आशुतोष भट्ट, नरेंद्र सिंह रौतेला, डी के बेरी, जमुना प्रसाद तिवारी, गणेश राणा डॉक्टर आलोक मैठानी, डॉ हर्षवर्धन पंत, माटी संस्था के डॉ वेद तिवारी इत्यादि मुख्य रूप से उपस्थित रहे।

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